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गिनता अम्बर के तारे।<br />
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निष्ठुर!यह क्या छिप जाना?<br />
मेरा भी कोई होगा<br />
प्रत्याशा विरह-निशा की<br />
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अब छुटता नहीं छुड़ाये<br />
रँग रंग गया हृदय हैं ऐसा<br />
आँसू से धुला निखरता<br />
यह रंग अनोखा कैसा!<br />
किरनों की लट बिखराये।<br />
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बढ बढ़ गयी और भी ऊँठी<br />
रूठी करुणा की वीणा<br />
दीनता दर्प बन बैठी<br />
नाविक! इस सूने तट पर<br />
किन लहरों में खे लाया<br />
इस बीहड़ बेला मे में क्या<br />
अब तक था कोई आया।<br />
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प्रत्यावर्तन के पथ में<br />
पद-चिह्न न शेष रहा हैं।है।<br />डूबा हैं है हृदय मरूस्थल<br />आँसू नद उमड़ रहा हैं।है।<br />
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अवकाश शून्य फैला है<br />
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