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लेखक: [[जयशंकर प्रसाद]]
 
[[Category:कविताएँ]]
 
[[Category: जयशंकर प्रसाद]]
 
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मर-मर कर जीते ही बनता
 
 
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
 
जला-जला कर नित्य ढालती,
 
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
 
न जिसको मृत्यु सालती।
 
 
वर्षा के घन नाद कर रहे,
 
तट-कूलों को सहज गिराती,
 
प्लावित करती वन कुंजों को,
 
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"
 
 
"बस अब ओर न इसे दिखा तू,
 
यह अति भीषण कर्म जगत है,
 
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
 
जैसे पुंजीभूत रजत है।"
 
 
"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
 
सुख-दुख से है उदासीनत,
 
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
 
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
 
 
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
 
ये अणु तर्क-युक्ति से,
 
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
 
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
 
 
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
 
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
 
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
 
प्यास लगी है ओस चाटती।
 
 
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
 
प्राणी चमकीले लगते,
 
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
 
स्रोतों के तट जैसे जगते।
 
 
मनोभाव से काय-कर्म के
 
समतोलन में दत्तचित्त से,
 
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
 
चूक न सकते तनिक वित्त से
 
 
अपना परिमित पात्र लिये,
 
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
 
माँग रहे हैं जीवन का रस,
 
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
 
 
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
 
अधिकारों की व्याख्या करता,
 
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
 
अपनी ढीली साँसे भरता।
 
 
उत्तमता इनका निजस्व है,
 
अंबुज वाले सर सा देखो,
 
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
 
उन सखियों सा बस लेखो।
 
 
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