Changes

प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
हिम उपलयहाँ उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निखरती,
यह अनवस्था, युगल मिले से,
 
विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
 
 
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
 
किंतु सशंकित हैं दोषों से,
 
वे संकेत दंभ के चलते,
 
भू-वालन मिस परितोषों से।
 
 
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
 
छूओ मत, संचित होने दो।
 
बस इतना ही भाग तुम्हारा,
 
तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
 
 
सामंजस्य चले करने ये,
 
किंतु विषमता फैलाते हैं,
 
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
 
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
 
 
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
 
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
 
ये विज्ञान भरे अनुशासन,
 
क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
 
 
यही त्रिपुर है देखा तुमने,
 
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,
 
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
 
भिन्न हुए हैं ये सब कितने
 
 
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,
 
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
 
एक दूसरे से न मिल सके,
 
यह विडंबना है जीवन की।"
 
 
महाज्योति-रेख सी बनकर,
 
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,
 
वे संबद्ध हुए फर सहसा,
 
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
 
 
नीचे ऊपर लचकीली वह,
 
विषम वायु में धधक रही सी,
 
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
 
सबको कहती 'नहीं नहीं सी।
 
 
शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,
 
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।
 
चितिमय चिता धधकती अविरल,
 
महाकाल का विषय नृत्य था,
 
 
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
 
करता अपना विषम कृत्य था,
 
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,
 
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
 
 
दिव्य अनाहत पर-निनाद में,
 
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।
''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''
Anonymous user