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झाड़ फूस के भग्न घरोंदों में लहराकर
हरी भरी गाँवों की धरती उठ ज्योम ज्यो ऊपर।
राज भवन के उच्च शिखर से उठा शास्ति कर
इंगित करती थी अलक्ष्य की ओर निरंतर।
बाहर से थी राय प्रजा हो रही संगठित,
भीतर से नव मनुष्यत्व गोपन में विकसित।
 
:::(२)
राज महल के पास एक मिट्टी के कच्चे घर में
दोनों की दयनीय दशा बन गई स्नेह दृढ़ बंधन!
जीवन के स्वप्नों का जीवन की स्थितियों से आ रण,
तन मन की था क्षुधा बढ़ाता ईधन ईंधन बन नव यौवन!
कितने ऐसे युवति युवक हैं आज नहीं जो कुंठित,
भीतर बाहर में विरोध जब बढ़ता है अनपेक्षित
तब युग का संचरण प्रगति देता जीवन को निश्चित!
 
:::(३)
राजभवन हे राजभवन, जन मन के मोहन,
प्रजा तंत्र के साथ राज्य रह सकते जीवित
जन जीवन विकास के नियमों से अनुशासित!
 
:::(४)
इन्क़लाब के तुमल सिन्धु-सा एक रोज हो उठा तरंगित
पा उसका संकेत सैनिकों ने, जो रहे सशस्त्र घेर कर
अग्नि वृष्टि कर दी जनगण थे मृत्यु कांड केल के लिए न तत्पर।
प्रबल प्रभंजन से सगर्व ज्यों आलोड़ित हो उठता सागर
क्रंदन गर्जन की हिल्लोलें उठने गिरने लगीं धरा पर!
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