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07:02, 6 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
यह जीवन है भाई, जीवन है
हां रो लो कुछ देर
जी हलका कर लो
फिर चलो
बहुत हो चला भाई
अब चलो भी
यहां तो कई बार खुशियां बांटने के लिए भी कोई नहीं मिलता
बीवी से कहो तो वह भी कहती है कि
अभी मुझे फुर्सत नहीं है
लड्डू बांटना चाहो
तो खाने के लिए कोई नहीं मिलता
मिलता है तो कहता है कि
मुझे डायबिटीज है
या लड्डू वह कुत्ते के सामने डाल देता है
यहां तो खुद से बातें करके
खुद को दिलासा देना होता है
खुद अपना हाथ अपने कंधे पर रखकर
महसूस करना पड़ता है
कि यह किसी और का हाथ है
यह जीवन है भाई
सुनो भाई, अरे सुनो तो
यह जीवन है.