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उम्मीद का आम्रतरू{{KKGlobal}}{{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>
हर किसी की मन- मृत्तिका
इतनी उपजाऊ है कि
बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है
इस पर चढ़कर
फलों को तोड़ने की क्षमता
बहुत प्राय: अनापके अनपके ही रह गए फलों को
मार जाता है विनाश का पाला,
स्वत: ही सूखकर
कौन मानेगा मेरा कहा कि
बाज आ जाओ इसकी छाया में जीने से
</poem>
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