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10:57, 7 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
इस फोटो को देखकर
पता नहीं चलता
कि यह औरत हंस रही है या रो रही है
या रोते-रोते यह हंस पड़ी है
या हंसते-हंसते रो पड़ी है
इस फोटो को देखकर
यह भी पता नहीं चलता
कि यह कहां की है
शक होता है कि भारत की है
विश्वास होता है कि
अमेरिका की होगी
कभी लगता है यह हंसी है जो रो रही है
वैसे यह दहाड़ भी हो सकती है
जो मुझ तक हंसी के रूप में पहुंच रही है
कभी लगता है इस तरह
कोई औरत रो नहीं सकती
फिर लगता है लेकिन क्या औरत इस तरह हंस सकती है?
और अभी-अभी लग रहा है कि यह औरत नहीं है, यह तो कोई मर्द है
अरे नहीं, यह तो बच्चा है, जो बूढ़ा दीख रहा है
अरे यह तो काला है जो गोरा लग रहा है
क्या यह मेरी आंखों का भ्रम है कि
मुझे कभी कुछ, कभी कुछ दीख रहा है
क्या जो नहीं है, वह कुछ ज्यादा ही दीख रहा है!