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दीप्त अभीप्से मुझको तु तू ले जा सत्पथ पर
यज्ञ कुंड हो मेरा हृदय अग्नि हे भास्वर!
प्राण बुद्धि मन की प्रदीप्त घृत आहुति पाकर
कैसे तुझे प्रसन्न करें हम, वरें दीप्त मन,
ज्ञान ज्ञात नहीं पथ, प्राप्त नहीं तप बल या साधन!
कौन मनीषा यज्ञ भेंट दें कौन हवि स्तवन
जिससे अग्नि, शिखा तेरी कर सके मन वहन!
</poem>
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