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11:12, 9 जून 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
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<poem>
पंख ही काफ़ी नहीं हैं आसमानों के लिए;
हौसला भी चाहिए ऊंची उड़ानों के लिए।
गाड़ने हैं जो फसल की चौकसी को खेत में,
चाहिए मजबूत खंभे उन मचानों के लिए।
रोक रक्खी है नदी की धार ऊपर ही कहीं,
है कुदाली की जरूरत अब मुहानों के लिए।
भीग जाती थी पलक सुनकर धुनें जिनकी कभी,
आँख में पानी कहाँ अब उन तरानों के लिए।
तख्त फाँसी का महज इक खेल का मैदान था,
लक्ष्य आज़ादी रहा था जिन दिवानों के लिए।
बन गई है देशसेवा चीज अब बाज़ार की,
लग रहीं हैं बोलियाँ निशदिन दुकानों के लिए।
भूख 'भारद्वाज' आकर फँस गई है जाल में,
घोंसले से तो चली थी चार दानों के लिए।
</poem>
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