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वह मैं हूँ / लावण्या शाह

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तुलसी के बिरवे के पास, रखा एक जलता दिया
जल रहा जो अकम्पित, मंद मंद, नित नया
बिरवा जतन से उगा जो तुलसी क्यारे मध्य सजीला
नैवैध्य जल से अभिसिक्त प्रतिदिन, वह मैं हूँ
सांध्य छाया में सुरभित, थमी थमी सी बाट
और घर तक आता वह परिचित सा लघु पथ
जहां विश्राम लेते सभी परींदे, प्राणी, स्वजन
गृह में आराम पाते, वह भी तो मैं ही हूँ न

पदचाप, शांत संयत, निश्वास गहरा बिखरा हुआ
कैद रह गया आँगन में जो, सब के चले जाने के बाद
हल्दी, नमक, धान के कण जो सहजता मौन हो कर
जो उलट्त्ता आंच पर, पकाता रोटियों को, धान को
थपकी दिलाकर जो सुलाता भोले अबोध शिशु को
प्यार से चूमता माथा, हथेली, बारम्बार वो मैं हूँ
रसोई घर दुवारी पास पडौस नाते रिश्तों का पुलिन्दा
जो बांधती, पोसती प्रतिदिन वह, बस मैं एक माँ हूँ !
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