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|रचनाकार=प्राण शर्मा
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किसी के सामने खामोश बनके कोई क्यों नम हो
जमाने में मेरे रामा किसी से कोई क्यों कम हो

कफ़न में लाश है इक शख्स की लेकिन बिना सर के
किसी की ज़िन्दगी का अंत ऐसा भी न निर्मम हो

न कर उम्मीद मधुऋतु की कभी पतझड़ के मौसम में
ये मुमकिन है नहीं प्यारे कि नित रंगीन मौसम हो

हरिक गम सोख लेता है करार इंसान का अक्सर
भले ही अपना वो गम हो भले ही जग का वो गम हो

जताया हम पे हर अहसान जो भी था किया उसने
कभी उस सा जमाने में किसी का भी न हमदम हो

कभी टूटे नहीं ए "प्राण" सूखे पत्ते की माफिक
दिलों का ऐसा बंधन हो, दिलों का ऐसा संगम हो
</poem>
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