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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
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ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये

कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये

मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये

हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये

हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये

उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
</poem>