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20:09, 12 जून 2010 {{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= ग़ज़ल / विजय वाते
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<poem>
सर से पावों तक यका यक एक सिहरन सी हुई
आईनें पर जो दिखी बिंदी तेरी चिपकी हुई
एक अल में जी लिए पूरे बरस पच्चीस हम
आज बिटिया जब दिखी साड़ी तेरी पहनी हुई
अब छुं में वो तपन वो आग बेचैनी नहीं
तू न घर हो तो लगे घर वापसी यों ही हुई
मेरे कुर्ते का बटन टूटा तो ये जाना कि क्यों
तू मुझे दिखती सदा है काम मे उलझी हुई
घर के मानी और क्या बस ये ही दो आँखें तो हैं
द्वार पर अटकी हुई बस राह को तकती हुई
</poem>