नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …
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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
चाँद चेहरों के फ़रोजाँ थे कि नामों के गुलाब
शाख ए मिजगाँ पे महकते रहे यादों के गुलाब
तेरी ज़ेबाई सलामत रहे ए कामत-ए-दोस्त
ज़ेब पोशाक रहेंगे मेरे ज़ख्मों के गुलाब
जी उठी ख़ाक नमी पा के मिरे अश्कों की
खिल रहे हैं मिरी गिल में नए ख़्वाबों के गुलाब
कौन छूकर इन्हें गुज़रा कि खिल जाते हैं
इतने सरशार तो पहले न थे होंठों के गुलाब
दोपहर शाम हुई शाम शब् ए तार हुई
और खिलते रहे खिलते रहे बातों के गुलाब
</poem>