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19:01, 14 जून 2010 {{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= ग़ज़ल / विजय वाते
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<poem>
या तो बहरे कान से टकरा के मर जाती है बात
या हवाओं में कहीं लहरा के मर जाती है बात
दिल से दिल का रास्ता सीधा भी है, आसाँ भी है
अक्ल के दीवार से टकरा के मर जाती है बात
हर तरफ इक शोर है नारे हाँ जयजयकार है
आसमानी शोर में घबरा के मर जाती है बात
बात लगती है भली जब सब जुबानें एक हो
तर्जुमें के फेर में चकरा के मर जाती है बात
</poem>