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एक पैग़ाम / परवीन शाकिर
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02:15, 15 जून 2010
शनासा<ref>परिचित</ref> बाग़ को जाता हुआ ख़ुशबू भरा रस्ता
हमारी राह तकता है
तुलू-ए-माह<ref>सूर्योदय</ref> की साअत<ref>
्समय
समय
या घड़ी</ref>
हमारी मुंतज़िर है
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</poem>
अनिल जनविजय
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