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बाकी बचा हुआ अंश जल्‍द मैं पुरानी भूल दुहराने फिर नहीं जा रहा हूँ। मत डरो ओ शैल की सुंदर, मुखकर, सुखकर विहंगनि! मैं पकड़ने को तुम्‍हें आता नहीं हूँ। पींजरे के बीच फुसलाता नहीं हूँ।  जानता हूँ मैं स्‍वरों में जो तुमळज्ञश्रै रूप्‍ लेते राग वे आते कहाँ से- बादलों के गर्जनों से, बात करते तरु-दलों से, साँस लेते निर्झरों से- औ' दारोदीवार के जो दायरे हैं बंद उसमें ये किए जाते नहीं हैं। किंतु मैंने उस दिवस उन्‍माद में अपनी विहंगिनि से कहा था- :::"क्‍या तूने कभ‍ी हृदय का देश देखा? भाव जब उसमें उमड़ते घुमड़ते, घिरते झरझर नयन झरते, तब जलद महसूस करते फ़र्क पानी, सोम रस का। प्‍यार, सारे बंधनों को तोड़, उर के द्वार सारे खोल, आपा छोड़, कातर, वि‍वश, अर्पित, द्रवित अंतर्दाह से है बोलता जब, उस समय कांतार अपनी मरमरहाट की निरर्थकता समझकर शर्म से है सिर झुकाता। दो हृदय के बीच की असमर्थता बन वासना जब साँस लेती और आँधी-सी उड़ाकर दो तृणों को साथ ले जाती विसुधि-विस्‍मृति-विजन में, उस समय निर्झर समझता है कि क्‍या है जिंदगी, क्‍या साँस गिनना।'  और ऐसे भाव, ऐसे प्‍यार, ऐसी वासना का स्‍वप्‍न ज्‍वालामय दिखाकर मैं उसे लाया बनाकर बंदिनी कुछ ईट औ' कुछ तीलियों की। किंतु उसके आगमन के साथ ही अपलोड कर दिया जाएगा।ऐसा लगा, कुछ हट गया, कुछ दब गया, कुछ थम गया, जैसे कि सहसा आग मन की बुझ गई हो। पर बुझी भी आग में कुछ ताप रहता, राख में भी फूँकने से कुछ धुआँ तो है निकलता।  भाव बंदी हो गया, वह तो नदी है। बाढ़ में उसके बहा जो डूबता है। (या कि पाता पार, पर इसका उठाए कैन ख़तरा। किंतु भरता गागरी जो वह नहाता या बुझाता प्‍यास अपनी। प्‍यार बंदी हो गया; वह तो अनल है। जो पड़ा उसकी लपट में राख होता। (या कि कुंदन बन चमकता, पर उठाए कौन ख़तरा।) जो अंगीठी में जुगा लेता उसे, व्‍यंजन बनाता, तापता, घर गर्म रखता। वासना बंदी हुई, बस काम उसका रह गया भरती-पिचकती चाम की जड़ धौंकनी का। बंदिनी की प्रीति बंदि हो गई, सब रीति बंदी हो गई, सब गीत बंदी हो गए, वे बन गए केवल नक़ल केवल प्रतिध्‍वनि उन स्‍वरों के, जो कि उठते सब घरों से, बोलते सब लोग जिनमें, डोलते सब लोग जिन पर डूबते सब लोग जिनके बीच औ' जिनसे उभरने का नहीं है नाम लेते! मत डरो, ओ शैल की सुंदा, मुखकर, सुखकर विहंगिनि, मैं पकड़ने को तुम्‍हें आता नहीं हूँ। मैं पुरानी भूल दुहराने फिर नहीं जा रहा; स्‍वच्‍छंदिनी, तुम गगन की किरणावली से, धरणि की कुसुमावली से, पवन की अलकावली से रंग खींचो। बादलों के गर्जनों से बात करते तरु-दलों से, साँस लेते निर्झरों से राग सीखो। और कवि के शब्‍द जालों, सब्‍ज़ बाग़ों से कभी धोखा न खाओ। नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ। इंद्रधनु के गीत गाओ।
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