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अपनी जगह / विजय वाते

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<poem>
शक् शुब्हा अपनी जगह, शिकवा गिला अपनी जगह
दिल लगाने का हसीं ये सिलसिला अपनी जगह

यूँ तो मिलते हैं गले हम ईद पर हर साल ही
पर दिलों का फासला चुभता रहा अपनी जगह

कुछ है अखबारों में शाया और दीवारों पे कुछ
जो कहा अपनी जगह और जो किया अपनी जगह

हो रहे थे खुरदरी सच्चाईयों से रूबरू
पर निगोडी आँख में इक ख़्वाब था अपनी जगह
</poem>