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20:51, 17 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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स्पटिक-निर्मल
और दर्पन-स्वच्छ,
हे हिम-खंड, शीतल औ' समुज्ज्वल,
तुम चमकते इस तरह हो,
चाँदनी जैसे जमी है
या गला चाँदी
तुम्हारे रूप में ढाली गई है।
स्पटिक-निर्मल
और दर्पन-स्वच्छ,
हे हिम-खंड, शीतल औ' समुज्ज्वल,
जब तलक गल पिघल,
नीचे को ढलककर
तुम न मिट्टी से मिलोगे,
तब तलक तुम
तृण हरित बन,
व्यक्त धरती का नहीं रोमांच
हरगिज़ कर सकोगे
औ' न उसके हास बन
रंगीन कलियों
और फूलों में खिलोगे,
औ' न उसकी वेदना की अश्रु बनकर
प्रात पलकों में पँखुरियों के पलोगे।
:::जड़ सुयश,
निर्जीव कीर्ति कलाप
औ' मुर्दा विशेषण का
तुम्हें अभिमान,
तो आदर्श तुम मेरे नहीं हो,
:::पंकमय,
सकलंक मैं,
मिट्टी लिए मैं अंक में-
मिट्टी,
कि जो गाती,
कि जो रोती,
कि जो है जागती-सोती,
कि जो है पाप में धँसती,
कि जो है पाप को धोती,
कि जो पल-पल बदलती है,
कि जिसमें जिंदगी की गत मचलती है।
:::तुम्हें लेकिन गुमान-
ली समय ने
साँस पहली
जिस दिवस से
तुम चमकते आ रहे हो
स्फटिक दर्पन के समान।
मूढ़, तुमने कब दिया है इम्तहान?
जो विधाता ने दिया था फेंक
गुण वह एक
हाथों दाब,
छाती से सटाए
तुम सदा से हो चले आए,
तुम्हारा बस यही आख्यान!
उसका क्या किया उपयोग तुमने?
भोग तुमने?
प्रश्न पूछा जाएगा, सोचा जवाब?
:::उतर आओ
और मिट्टी में सनो,
ज़िंदा बनो,
यह कोढ़ छोड़ो,
रंग लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ।
तोड़ते है प्रयसी-प्रियतम तुम्हें?
सौभाग्य समझो,
हाथ आओ,
साथ जाओ।