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20:57, 17 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
व्यर्थ जीने के बहाने को कहाँ से लाऊं ?
अपनी हस्ती के निशानों को कहाँ से लाऊं ?
है ठिकाना नहीं जिनका कि कहना से गुजरें
ऐसी नदियों के मुहाने को कहाँ से लाऊं ?
उम्र भर मैंने जुटाए हैं गुनाहों के सबूत
बेगुनाही के बयानों को कहाँ से लाऊं ?
जो न सज़दे करें हुक्काम की दहलीज़ पर
उन गुनहगार जवानों को कहाँ से लाऊं ?
रास्ता सख्त है और रात अंधेरी है बहुत
मैं तेरे प्यार के शानों को कहाँ से लाऊं ?
रास्ता हमकों दिखाए जो अँधेरे पथ पर
उन बुजुर्गों को सयानों को कहाँ से लाऊं ?
</poem>