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कहाँ से लाऊं / विजय वाते

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|रचनाकार=विजय वाते
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<poem>
व्यर्थ जीने के बहाने को कहाँ से लाऊं ?
अपनी हस्ती के निशानों को कहाँ से लाऊं ?

है ठिकाना नहीं जिनका कि कहना से गुजरें
ऐसी नदियों के मुहाने को कहाँ से लाऊं ?

उम्र भर मैंने जुटाए हैं गुनाहों के सबूत
बेगुनाही के बयानों को कहाँ से लाऊं ?

जो न सज़दे करें हुक्काम की दहलीज़ पर
उन गुनहगार जवानों को कहाँ से लाऊं ?

रास्ता सख्त है और रात अंधेरी है बहुत
मैं तेरे प्यार के शानों को कहाँ से लाऊं ?

रास्ता हमकों दिखाए जो अँधेरे पथ पर
उन बुजुर्गों को सयानों को कहाँ से लाऊं ?
</poem>