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21:26, 17 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो
दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो
चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो
हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो
सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो
</poem>