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अच्छा लगा / विजय वाते

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<poem>
जब गजल के हम कदम महफ़िल चली अच्छा लगा
शेर पर मेरे जो तुमने वाह की अच्छा लगा

यों तो कहते हैं यहाँ पर कुछ न कुछ हम तुम सभी
बात मेरी थी तुम्हें अपनी लगी अच्छा लगा

सौ तरह की बंदिशों के बीच जो मैंने कहा
तेरीनाज़रों नें मेरी ताईद की अच्छा लगा

शायरी में लाजमी है एक हद तक पेचों ख़म
फिर भी मेरी बात संप्रेषित हुई अच्छा लगा

अपनी बातें आप तक पहुचा सकूँ ये फ़िक्र थी
इस लिए जब शेर पर ताली बजी अच्छा लगा

शायरी के पारखी की फ़िक्र अब किसको हो क्यों
तुमने मेरे शेर पर जो दाद दी अच्छा लगा
</poem>