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06:37, 19 जून 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार = मदन कश्यप
|संग्रह = नीम रोशनी में / मदन कश्यप
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<poem>
अचानक मिल गए बादशाह हम्मूराबी
कोई चार हजार वर्षों से अक्षरों में दुबके-दुबके
अकड़ गई थी पीठ उनकी
मैंने कहाः उठिए और बताइए
ठीक-ठीक कहां पर था आपका बेबीलोन
वहां जहां बमों से घायल है धरती
अथवा वहां जहां अभी भी बचे हैं बंकर
सही-सही वह भी नहीं पहचान पाए अपना बेबीलोन
बोले इस बीच कितना पानी बह चुका है दजला-फरात में
मैंने कहा पानी नहीं है नदी की कथा
जितना पानी है उससे कहीं ज्यादा है आदमी की व्यथा
दसवीं बार नहीं बसाया जा सका मोहनजोदड़ो को
एक-एक कर नष्ट हो गई पूरक की महान सभ्यताएं
अपने सुंदर अतीत के गौरव पर
मध्ययुगीन बर्बरता की चादर डालकर
मर-कट रही हैं हताश जातियां
अब कोई नहीं जाता बेबीलोन
लोग ज्यादा से ज्यादा कर्बला तक जाते हैं
कोई नहीं ढूंढता सभ्यता की जन्मभूमि
लोग अधिक से अधिक रामजन्मभूमि ढूंढते हैं
बोलेः कुछ गड़बड़ था मेरी न्यायसंहिता में भी
मैंने कहाः वही रह गया है केवल
आज भी हैं ऐसे शासक
जो आदमी और आदमी में इतना फर्क करते हैं
कि आदमी और बैल में फर्क नहीं कर पाते
परंतु उन्हें वैसी नींद नहीं आती जैसे आपको आती थी!