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|रचनाकार = मदन कश्यप
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<poem>

दोस्‍तो दोस्‍तो
तुम्‍हीं बताओ दोस्‍तो
हम क्‍या कहें उस रोशनी को
जो ले जा रही है हमें अंधेरे की ओर
जिन्‍होंने बहुत दिनों तक विश्‍वास नहीं किया
इसके घूमने का
वही आज पृथ्‍वी को
घुमाना चाहते हैं उल्‍टी दिशा में

उन्‍हें अफसोस है
हजारों वर्ष की सभ्‍यता ने
कमजोर कर दिए हमारे दांत
नहीं रहे हम अब कच्‍चा गोश्‍त खाने के काबिल

वे हंसते हैं
करीने से कटे हमारे नाखूनों पर
और पहनाना चाहते हैं हमें बघनखा!
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