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14:59, 23 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश कौशिक
|संग्रह=चाहते तो... / रमेश कौशिक
}}
<poem>पंख की आवाज़
इन बुढ़बस शर्तों के अधीन
रहने के लिए
तुम्हें किसने
किया था मजबूर ।
तुम चाहते तो
कहीं भी जा सकते थे
गोवा, काठमांडो, ग्रीनविच गाँव
या कहीं और
जहाँ भी तुम्हारे सींग समा सकते थे
लेकिन यह संभव ही नहीं था
तुम्हारे सींग में फँसा था तरबूज़
या तो सींग को कटना था
या तरबूज़ को फटना था।
तुम नहीं गए तो नहीं गए
लिली और अजगर की शादी
यहाँ होगी ही
और फूलों की मृत्यु भी
तुम यह सब न देखो
कैसे होगा।
तुम्हारे घर के परदे में
सौ सूराख हैं
तब अपने को छिपाने
और दूसरों को
न देखने की बात
फिज़ूल है
(परदे के अंतरालों से
लोक-लोकांतरों के
स्वर्ग में पहुँचा जा सकता है)
तुम अपनी प्रेमिका के
बालों के गद्दे पर सोओगे
तो पड़ोसी पर
निकोटीन का असर होगा ही
और बुढ़ापा
जो तुम्हारे
घर की ओर
आ रहा होगा
उसके घर में
घुस जाएगा।</poem>