<poem>
'''अपने गाँव में'''
दगरा अभी तक
सड़क नहीं बन पाया
कड़की में पहले भीकू
दिन गुजारता था
अब उसका लड़का
पथ के पथवारी का मन्दिर
टूटा पड़ा है
पास की तलैया का जल
सूख गया
और कुआँ
जिसका जल चढ़ता था मूर्ति पर
बच्चों की रेवड़ के साथ
हुंआ हुंआ करता है
मेरा तो घर नहीं ही रहा
पिछवाड़े का कुम्हार भी
चिलम और गागर बनाने का
काम छोड़
अपने गधों के संग
शहर ओर चला गया
सोना
जो बचपन में मेरे साथ
आँख मिचौनी खेलती थी
अब लुट-पिट कर
फिर यहीं पीहर में रहती है
सुना है
दवा-दारु के अभाव में
उसका पिया
राम-प्यारा हो गया
यहाँ इस बगिया में
पहले एक पाठशाला थी
जमींदार की
जिसमें मैं पढ़ा था
जमींदारी टूटने के बाद
उसने इसे बेच दिया
अब इसमें लाला की गाय-भैंस
बंधती है
और पाठशाला
दूर
उस पीपल तले लगती है
बनिए की दुकान में
पहले एक ओर डाकखाना था
वह भी तो कब का टूट गया
गाँव में आयी दुल्हन
पीहर को पाती
नहीं भेज पाती
नयी दिल्ली
इस साल चाँदी से तुलेगी
और मेरे गाँव के सवाल
एक बड़े वायदे के साथ
शायद मुसकरा कर
फिर टाल देगी