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कानपूर–9 / वीरेन डंगवाल

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<poem>

दहकती हुई रासायनिक रोशनी में
बालू के विस्‍तार पर
सिर्फ रेंगता सा लगता है दूर से
एक सुर्ख ट्रैक्‍टर
सुनाई नहीं पड़ता
चींटियों सरीखे कई मजदूर
जो शायद ढो रहे हैं कुछ भारी असबाब
जैसे शताब्दियों से!
किरकिराती आंखों से देखता हूं
बनता हुआ गंगा बैराज

एक थकी हुई पराजित सेना के घोड़े
और देहाती पदातिक
उतरेंगे अभी
क्‍लांत नदी में रात के अंधेरे में बार-बार
बिठूर के टीलों भरे तट पर
किसी फिल्‍म में निरंतर दोहराये जाते
मूक दृश्‍य की तरह

इसी तट के पार
शुरू होते हैं
उद्योगपतियों के फार्म हाउस
और विलास गृह
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