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आख़िर कब तक / रमेश कौशिक

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कब तक
हम खाइयों में रहेंगे
आखिर कब तक

कब तक
हम अपनी कब्रों की ओट से
टॉप के गोले दागेंगे
आखिर कब तक

कब तक
हमारी बीवियाँ
करती रहेंगी याद
और हम बगल में बंदूक दाबे रहेंगे
आखिर कब तक

कब तक किसी आदमी को मारने का दर्द
जो आत्महत्या के दर्द से बदतर है
हम अपने दिलों पर ढोते रहेंगे
आखिर कब तक
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