Changes

चौपाल

21 bytes removed, 17:08, 16 जुलाई 2008
/* इस तकलीफ में कोई बोलता क्यों नहीं! */
==इस तकलीफ में कोई बोलता क्यों नहीं!==
''कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है कि जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ? अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० % स्थान प्रतिशत भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके !''
''दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है ! हमें असद जैदी और इमरान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !''
'''''एक ख़त मिला मुझे गुजरात से रजिया मिर्जा का उसे जस का तस् छाप रहो रहा हूँ , बीच में से सिर्फ़ अपनी तारीफ़ के शब्दों को हटा दिया है ( मेरी तारीफ यहाँ छापना आवश्यक नही है ) जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ...'''''
नमस्ते सतिश सतीश जी, आपका पत्र पढा। पढकर हैरान नहीं हुं हूँ क्यों कि मै ऐसे लोगों को साहित्यकार मानती ही नहिं हुं नही हूँ जो लोग धर्मो को, ईंसानों को बाटते बाँ ते चलें। मै तो ---------------------------------------------------------------------------------------------------आपकी पहेचान पहचान है। उन लोगों को मैं' साहित्यकार' नहिं नहीं परंतु एसे विवेचकओं विवेचकों की सुचिमें रखुंगी सूची में रखूंगी जो अपनी दाल-रोटी निकालने के लिये अपने आपको बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बना देते है। मैं अस्पताल में काम करती हुं हूँ । मेरा फ़र्ज़ है कि मै सभी दीन-दुख़ियों का एक समान ईलाज़ करुंइलाज़ करूँ, पर यदि मैं अपने कर्तव्य को भूल जाऊं जाऊँ तो इसमें दोष किसका? शायद मेरे "संस्कार" का ! हॉहाँ, सतिष सतीश जी अपने संस्कार भी कुछ मायने रखते है। हमको हमारे माता-पिता, समाज, धर्म, इमान ईमान ने यही संस्कार दीये दिए है कि ईंसान इन्सान को ईंसानों इंसानों से जोडो, ना कि तोडो।सतिष तोड़ो। सतीश जी आपकी बडी आभारी हुं हूँ जो आपने एसा ऎसा प्रश्न उठाया। मैं एक अपनी कविता उन मेरे भाइभाई-बहनों को समर्पित करती हुं हूँ जो अपने 'साहित्य' का धर्म नीभा निभा रहे है। सतिशजी सतीश जी आपसे आग्रह है मेरी इस कविता को अपने कमेन्ट में प्रसारित करें। आभार
''दाता तेरे हज़ारों है नाम...''
''कोइ कोई पुकारे तुज़े तुझे कहेकर रहिमरहीम,''
''और कोइ कोई कहे तुज़े राम।तुझे राम...''
''दाता..........''
''क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,''
''सारे जग पर तेरा पहेरापहरा,''
''तेरा 'राज़'बड़ा ही गहेरागहरा,''
''तेरे ईशारे इशारे होता सवेरा,''
''तेरे ईशारे हिती इशारे होती शाम।...''
''दाता......''
''ऑंधी आँधी में तुं तू दीप जलायेजलाए,''
''पथ्थर पत्थर से पानी तुं तू बहाये,''
''बिन देखे को राह दिख़ाये,''
''विष को भी अमृत तु तू बनाये,''
''तेरी कृपा हो घनश्याम।...''
''दाता.........''
''क़ुदरत के हर-सु में बसा तुतू,''
''पत्तों में पौन्धों में बसा तुतू,''
''नदीया नदिया और सागर में बसा तुतू,''
''दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तुतू,''
''फ़िर क्यों में ढुंढुं मैं ढूंढूँ चारों धाम।...''
''दाता..........''
''ये धरती ये अंबर प्यारे,''
''चंदा-सुरज सूरज और ये तारे,''
''पतज़ड पतझड़़ हो या चाहे बहारें,''
''दुनिया के सारे ये नज़ारे,''
''देख़ुं देखूँ मैं ले के तेरा नाम।.........''
''दाता........''
''मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !''
''जो जगह पे मुज़को सुक़ुं मुझ़को सुकूँ मिले,''
''मुझे वो जहाँ की तलाश है।''
''मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस विषय पर बहुत कम लोग बोलने के लिए तैयार है , मैं मुस्लिम भाइयों की मजबूरी समझता हूँ, भुक्ति भुक्त-भोगी होने के कारण उनका न बोलना या कम बोलना जायज है परन्तु, सैकड़ों पढ़े -लिखे उन हिंदू दोस्तों के बारे में आप क्या कहेंगे जो अपने मुस्लिम दोस्तों के घर आते -जाते हैं और कलम हाथ में लेकर अपने को साहित्यकार भी कहते हैं''''!''
''आज कबाड़ खाना ’कबाड़खाना’ पर असद जैदी के बारे में तथाकथित कुछ हिंदू साहित्यकारों की बातें सुनी, शर्मिंदगी होती है ऐसी सोच पर ! मेरी अपील है उन खुले दिल के लोगों से , कि बाहर आयें और इमानदारी से लिखे जिससे कोई हमारे इस ख़ूबसूरत घर में गन्दगी न फ़ेंक सके !''
Posted by सतीश सक्सेना
Anonymous user