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पीड़ा / रेणु हुसैन

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<poem>
मेरी तमाम खामोशियों के बाद
शब्द क्या ठहर पाएंगे
मेरी जुबान पर
इन अनन्त-सी पीड़ाओं के बाद
होंठ क्या खिल पाएंगे
या सिले ही रह जाएंगे

उधार के पल और मांगा हुआ वक़्त
अगर लौटा भी दूं
तो क्या मेरी हथेलियों से मिट पाएंगी
ये वक़्त की लिखी निराशाएं
क्या बन पाएंगी मेरी चाहत की रेखाएं

जिस द्वार भी गई हसरतें
हर दरवाज़ा बंद मिला है
हर रस्ते फैली मायूसी
मंजिल सभी लगीं बेगानी
क्या द्वार कोई खुल पाएगा
जिसमें पा जाएं हम खुद को

हे प्रियतम। तुम ही बतलाओ
इस जीवन में
अपने इस छोटे जीवन में
क्या हम तुमको पा जाएंगे

<poem>
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