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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रदीप जिलवाने
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तुम आना
कि जैसे नींद
चली आती है आँखों में
रात घिरने के साथ-साथ

तुम आना
कि जैसे पाखी
लौट आते हैं दरख्तों पर
ढलते हुए सूरज के साथ

तुम आना
कि जैसे लौट आती है
गमक थके-हारे जिस्म पर
हथेली में आते ही दिहाड़ी

तुम आना
कि तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी।
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