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|रचनाकार=प्रदीप जिलवाने
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वह आता मेरे दरवाजे तक
फिर फिर लौटकर
दस्तक देता/बजाता ‘कालबेल’
आती मैं जब तक हो जाता ओझल

ढूँढती बाहर सड़क पर
दूर तक फैली विरानी में
चटख रंगों की निरवता में
आकाश की फटी चादर के
ओर-छोर तक
पेड़ों की शाखों पर और
उस पर लटकती
उदास खामोशियों में भी
तलाशती उसे
यहाँ-वहाँ रहस्य की तरह

वह गुजर जाता
मेरे करीब से भी कईं बार
और मैं पहचान भी नहीं पाती
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