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08:37, 1 जुलाई 2010 <poem>पहले मैं एक सपना था
जिसे संजोया तुमने
सांसों से साधा
दुनिया भर का जहर पीकर
बूंद-बूंद अमृत पिलाया
जुड़ा रहा जब तक गर्भनाल से मैं
दुनिया में आते ही
मेरे होठों की हरकत के साथ ही
उमड़- उमड़ आय तुम्हारी
छातियों में हिलोरें लेता क्षीर सागर
फ़िर मेरे सामने खुली जो दुनिया उसमें
गर्मी ऐसी कि चमड़ी झुलसा दे
सर्दी ऐसी कि रक्त जमा दे
बदलती ॠतुओं के साथ
आंधी-ओले भी दिखाते अपना असर
लेकिन
न जाने कितने-कितने घातों-प्रतिघातों से
बचाकर अक्षुण्ण ही रखा मुझे
तुम्हारी छातियों की छतनारी छांव ने !
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