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14:44, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कर्णसिंह चौहान
|संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / कर्णसिंह चौहान
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बाहर दूर तक पसरी है
बर्फ़ की बेदाग काया
प्रकृति की माया
धरा पर छितरी है।
पूर्णिमा के चाँद सा खिला सूरज
उजली धूप
खिली है चारों ओर
बसंत फैला है
इस गरमाए घर में
उर्वर है कल्पना
अदभुत है सौंदर्य
इसे दूर से देखो
ऐश्वर्य के कुहासे में
यूरोप की परछाई
छलावा है केवल
यह जो सूरज वैभव में लटका है
मात्र हिम पिंड
आत्मा कंपा देगी
यह खिलखिलाती धूप
धर्म-कर्म से विचलित
आत्मरहित
पूरा वेश
<poem>