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14:46, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कर्णसिंह चौहान
|संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / कर्णसिंह चौहान
}}
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<poem>
विदेश में लावारिस मरे
सबसे प्यारे मित्र की
निशानियां लिए
मैं लौट रहा हूँ
उन नीड़ों बाजों से घिरे
कुछ शावक थे
डरे हुए चीखते
कोई नहीं था
संरक्षक, बंधु, हितू
बर्बर युद्ध भूमि से मैं लौट रहा हूँ
कटी ग्रीवाओं, नुचे पंखों की
रक्तिम स्मृति लिए
किलकारियां भरता वह बच्चा
अचानक दलदल में
धंसता चला गया
खेल जान ताली बजाते तमाशबीन
कैसी कातर थीं पुकारती
ये आंखे
गर्भ में समाकर सब थिर हो गया
उसकी आखिरी घुटी सांस लिए
लौट रहा हूँ मैं
बड़े खूंखार रक्तपायी हैं
ये सुहाने जंगल
ज़र्द सफेदी पुते
ठंडे लोग
बहुत खराब है मौसम
मर्यादाहीन समुद्र
सब लुटा किसी तरह बचता-बचाता
लौट रहा हूँ अपने देश
<poem>