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07:18, 2 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
उठा लंगर, छोड़ बंदरगाह
नए होंगे देश, भाषा, लोग जीवन
नया भोजन, नई होगी आंख
पर यहीं होंगे सितारे
ये ही जलधि-जल
यह आकाश
ममता यही
पृथ्वी यही अपनी प्राणप्यारी
नएपन की मां हमारी धरा
हवाएं रास्ता बतलाएंगी
पता देगा अडिग ध्रुव चम-चम-चमचमाता
प्रेम अपना
दिशा देगा
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा
लिहाजा,
उठा लंगर, खोल इंजन छोड़ बंदरगाह
हैं अभी वे लोग जो ये बूझते हैं
विश्व के हित न्याय है अनमोल
वही शिवि की तरह खुद को जांचते
देते स्वयं को कबूतर के साथ ही में तोल
याद है क्या यह कहानी ?
सातवीं में यह पढ़ी थी
मगर फिर भी बस कहानी ही नहीं है
आदमी है आदमी है आदमी
आदमी कमबख्त का सानी नहीं है
फोड़ कर दीवार कारागार की इंसाफ की खातिर
तलहटी तक ढूंढता है स्वयं अपनी थाह
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