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07:20, 2 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
भाई भाई की गरदन पर
छूरी फेर रहा है
दोस्त मुकदमे लिखा रहे हैं
एक-दूसरे पर
सौदा लेकर लौटती
स्त्री के गले से चेन तोड़
भागा जा रहा एक शोहदा
विधान भवन की तरफ
अपने बदलते हुए शरीर को लेकर
कैसा अभूतपूर्व भाव है
उस किशोरी की आंखों में
इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल देने वाली
मूसलाधार झड़ी लगी है अपने देस में
तर-ब-तर और ठिठुरता हुआ मैं
लौट रहा हूं
बाढ़ में बहती नदी बनी सड़क के रास्ते
लगभग सूनी बस से
अपने सूने घर की ओर
जहां एक तड़पता हुआ ज्वरग्रस्त स्वप्न
मेरी बेचैन प्रतीक्षा में है
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