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07:21, 2 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
धन का घन
रहार बाज घन्न-घन्न
घन-घन-घन
घनन-घनन
फटे जा रहे पर्दे भ्रांतिग्रस्त कानों के
छुटे चले जाते हैं छक्के प्राणों के
काट रही सर्वव्याप्त अंधकार
लपटों की धुआंभरी हू-ब-हू
गोली की गोलों की सन-सन-सन-सनन-सनन
रात भरी भीषण अंधे कोलाहल कलरव से
बूटों की ठक-ठक से
भागती पदचापों से
चीखें कम उम्र लड़कियों की
चीत्कार
उत्फुल्लित युवा वर्ग हाय-हाय
धांय-धांय-ढम-ढम-ढम
टीवी की टनन-टनन
धन का घन !
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