<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब काघमासान हो रहा<br> '''रचनाकार:''' [[मधुभूषण शर्मा 'मधुर'भारतेन्दु मिश्र]]</td>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब काआसमान लाल-लाल हो रहाबढ़ेगा और भी रुतबा अज़ीमुश्शान ग़ालिब काधरती पर घमासान हो रहा।
लगा सकता नहीं कोई कभी कीमत यहाँ उसकीहरियाली खोई हैजो घर से बाद मरने के मिला सामान ग़ालिब कानदी कहीं सोई हैफसलों पर फिर किसान रो रहा।
जुआरी मस्त बादाकश-सा शायर तो दिखा सब कोसुख की आशाओं परकि कोई कद्र-दाँ ही फ़न सका पहचान ग़ालिब का खंडित सीमाओं परसिपाही लहूलुहान सो रहा।
गली कोठों मुहल्लों चिनगी के झरोखे आज तक पूछेंबीज लिएचुका पाएगी क्या दिल्ली कभी एहसान ग़ालिब काविदेशी तमीज लिए शराबो-कर्ज़ में ड़ूबे करें अशयार दीवानाकि प्यासा रह नहीं सकता कभी मेहमान ग़ालिब का ज़रा बादल गुज़रने दो दिखाई चाँद तब देगानहीं मतलब समझ पाना रहा आसान ग़ालिब का न कहिए यह कि तू क्या है ये अंदाज़े-अदावत हैख़फ़ा इस गुफ़्तगू से है दिले-नादान ग़ालिब का नहीं थी हाथ को जुंबिश तो ये आँखों का ही दम था रहापाँओं की लग्ज़िश से बचा ईमान ग़ालिब का है लाया रंग सचमुच शोख़ फ़ाक़ामस्त वो पैकर न हो बेआबरू पाया ‘मधुर’ ऐलान ग़ालिब कापरदेसी यहाँ धान बो रहा।
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