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विषम राग / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

मैं समुद्र ज़रूर हूँ
फिर भी हे मेरी पृथ्वी!
तुमने मुझे दी अपने तन की चादर
धागों की गुंजलक का तार-तार
स्वरों की कश्तियाँ लेकर तुम्हारे रहस्यों में उतर
चिर यात्री की तरह
भटक रहा हूँ विषम राग की ज्वाल बनकर
सर्जना की देवी!
मुझे हविष्याग्नि-कुण्ड की समिधा देकर
अगिन पाखी-सा जला दो
ताकि मैं खिल सकूँ मुक्त होकर
आकाश के माथे पर
राग-पुष्प की रश्मियों-सा दिगन्त में


<poem>
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