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14:39, 4 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
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<poem>
उगते सूरज के बाल ललाट पर
लिखी होती थीं जो प्रार्थनाएँ
वे अब मिट चली हैं
संस्कृतियों में अब उनका वजूद नहीं रहा
प्रार्थनाएँ जिनके होठों पर आशीष की तरह आ जाती थीं
अब दुनिया के किसी कोने में
शायद ऐसे बचे-खुचे लोग ख़ुद पर हँसते होंगे
हँसते होंगे अपनी नादानियों पर
प्रार्थनाएँ मिट चली हैं
प्रार्थना की जगह उस भाषा ने ले ली है
जिसे मन्दिर का पुजारी और
मस्जिद का बुख़ारी बोलता है
मन्दिर तो है
मस्जिद तो है
लेकिन प्रार्थना नहीं है
मन्दिर की बोली मत बोलो
मस्जिद की बोली मत बोलो
मत बोलो मन्दिर-मस्जिद की बोली
इनसान की बोली कब अपनाओगे
इससे बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है
<poem>