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तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी <br><br>
अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम हो रह कर <br>
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता <br>
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीम-बार नीमबाज़ आँखें <br>इन्हीं हसीन फ़सानों में माहो महब हो रहता <br><br>
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की <br>
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है <br>
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं <br>
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदही ज़िन्दगी जैसे <br>
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं <br><br>
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले <br>
गुज़र रहा हूँ कुछ अंजानी अनजानी गुज़रगाहों से <br>मुहीब साये मेरी सिम्त बड़ते बढ़ते आते हैं <br>
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से <br><br>
न कोई जादा न मंज़िल न रोशनी का सुराग़ <br>
भटक रही है ख़ालाओं में ज़िन्दगी मेरी <br>
इंहीं इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर <br>मैं जानता हूँ मेरी हम-नफ़स हमनफ़स मगर यूँ ही <br><br>
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है <br><br>