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कभी कभी / साहिर लुधियानवी

6 bytes removed, 20:16, 3 नवम्बर 2007
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है<br><br>
के कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में <br>
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी <br>
ये तीर्गी तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है <br>
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी <br><br>
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता <br>
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें <br>
इन्हीं हसीन फ़सानों में महब महव हो रहता <br><br>
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की <br>
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले <br>
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी गुज़रगाहों रह्गुज़ारों से <br> मुहीब महीब साये मेरी सिम्ट सम्त बढ़ते आते हैं <br>
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से <br><br>
न कोई जादा न जादह-ए-मंज़िल न रोशनी रौशनी का सुराग़ <br>
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी <br>
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर <br>
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूँ ही फिर भी <br><br>
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है <br><br>
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