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09:22, 21 जुलाई 2010 '''आरम्भ''' <br />
कहाँ मिली मैं? कहाँ से आई? यह पूछा जब शिशु ने माँ से<br />
कुछ रोती कुछ हँसती बोली, चिपका कर अपनी छाती से<br />
छिपी हुयी थी उर में मेरे, मन की सोती इच्छा बनकर<br />
बचपन के खेलों में भी तुम, थी प्यारी सी गुडिया बनकर<br />
मिट्टी की उस देव मूर्ति में, तुम्हे गढ़ा करती बेटी मैं<br />
प्रतिदिन प्रात यही क्रम चलता, बनती और मिलती मिट्टी में<br />
कुलदेवी की प्रतिमा में भी, तुमको ही पूजा है मैंने<br />
मेरी आशा और प्रेम में, मेरे और माँ के जीवन में<br />
सदा रही जो और रहेगी, अमर स्वामिनी अपने घर की<br />
उसी गृहात्मा की गोदी में, तुम्ही पली हो युगों युगों से<br />
विकसित होती हृदय कली की, पंखुडियां जब खिल रही थी<br />
मंद सुगंध बनी सौरभ सी, तुम ही तो चहु ओर फिरी थी<br />
सूर्योदय की पूर्व छटा सी, तव कोमलता ही तो थी वह<br />
यौवन वेला तरुणांगों में, कमिलिनी सी जो फूल रही थी<br />
स्वर्ग प्रिये उषा समजाते, जगजीवन सरिता संग बहती<br />
तव जीवन नौका अब आकर, मेरे ह्रदय घाट पर रूकती<br />
मुखकमल निहार रही तेरा, डूबती रहस्योदधि में मैं<br />
निधि अमूल्य जगती की थी जो, हुई आज वह मेरी है<br />
खो जाने के भय के कारण, कसकर छाती के पास रखूं<br />
किस चमत्कार से जग वैभव, बाँहों में आया यही कहूं?<br />
-रबिन्द्र नाथ ठाकुर की अंग्रेजी कविता "The beginning" से अनूदित <br />
-- अत्रि 'गरुण'