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15:20, 22 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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<poem>
हे सखा!
तुम सत्य जैसे
हो निहित
मन के प्रबल
आवेग में
जो ज्ञान को है
वो विदित
भूगर्भ और
पाताल मिलता है जहाँ
कुछ अर्थ खिलता
है वहां
सम्भावना
कितनी सरल
मन अमृत मंथन के
उपज , जितना गले में
है गरल
मैं भाव हूँ
तुम अर्थ हो
सन्दर्भ और सामर्थ्य हो
तुम हृदय
में सम्मान हो
तुम ही मेरा भगवान हो
तुम ही मेरा भगवान हो
तुम ही मेरा भगवान हो
</poem>