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07:01, 26 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
|संग्रह=
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<poem>
''' आरण्यक '''
एक दिन हम खो जाएँगे
छोप जाएंगे दुनिया से
रहने लगेंगे
अदृश्य कोटर में
पेड़ में गजमुख
आसमान की पीठ पर चन्द्रमा
डालियां सूखी छितराई आसपास
सभी पूछेंगे
छिपने का राज
हम एक दूसरे को देखेंगे और
कुछ भी कहने से पहले
मुस्कराएंगे
फिर भी कुछ भी बताना हमें
निरर्थक लगेगा
एक दिन हम छोड़ जाएंगे
यह घर ये दीवारें या आँगन
यह छत
यह किताबों का गट्ठर
कागजों का अम्बार बेतरतीब
बेसंभाल
फिर हम खोजने नहीं आएँगे
इनमें दबी हुई चिट्ठियां
अखबारों की कतराने
प्रियजनों की पदचाप
अपने हुनर की गुमनाम परछाईयाँ
कैसी दबी हुई सिसकी निकलती है
जब हमें मिल जाता है इसे कबाड़ में
मित्र का गुपचुप संकेत
कोई अकेला शब्द
कूट भाषा में प्रेम
खेल के रहस्यमय इशारे
कोई फोन नंबर
जो काम आता रहा हो बुरे दिनों में
एक दिन हम छिप जाएंगे
चन्द्रमा की परिधि के आसपास
चन्द्रमा दिखेगा मानसरोवर-सा
हंस तैर रहे होंगे
बत्तखें कर रही होंगी कल्लोल
हमारे वजूद से बेखबर
एक साथ कई नीलकंठ सगुन मनाते
चुप बैठे होंगे
नहाई रोशनाई में
फिर हमें अचानक याद आएगा
नहीं की हमने कोई वसीयत समय रहते
नहीं किया कोई बंटवारा
घर-द्वार
हाट-दुकान का
थोड़ा पछतावा होगा थोड़ा दिलासा
कि दुनिया सिखा देती है
हमारी संततियों को
दुनिया से निबटना
एक दिन असफलताएं चुपके से
आकर बता जाएँगी
एक जन्म का वृत्तांत
कि कैसे दीमकों ने जाह बना ली
शरीर के भीतर
सफाचट कर गईं अलमारियां बहीखाते
बढ़ा-चढ़ाकर हमारा दुःख हमारी भूलें
बयाँ करेंगी असफलताएं
जिनसे भागकर हम आ छिपे यहां
सुनसान जगहों में
हम अब झुकेंगे नहीं उनके आगे
उन्हें अनसुना कर
कहीं और खिसका जाएंगे
कहीं और जा छिपेंगे
कृतिका नक्षत्र बनकर
कि कोई पहचाने तो पहचाने
नहीं तो खुश रहे मदमाते ऐश्वर्य में
यह उजाड़ जैसा भी हो
है तो हमारा ही चुना हुआ
हमारी हिक़मत की एक नई सृष्टि
उजाड़ में उज्ज्वल
रिश्ते टूटते हैं
तो हर बार नए-नए
बन ही तो जाते हैं.