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{{KKRachna
|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
|संग्रह=एक बहुत कोमल तान / लीलाधर मंडलोई
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<poem>

यात्राओं में पिता
अपने साथ रखते थे
बिलानागा
एक लोटा
सुआपी
और लाठी

रास्‍ते में मिलती
जब कोई नदी
तालाब
या कुंआ

वे अपनी लंबी सुआपी से
बांधते लोटे के मुंह
और पानी खींच लेते

दूसरे छोर में बंधी सुआपी से
निकालते भोजन
और बैठ जाते पेड़ की छांह में

सुआपी पर फैल जाती
यात्रा गृहस्‍थी
ज्‍वार के दो टिक्‍कड़
प्‍याज की गांठ
दो-एक हरी मिर्च
और अथाने की कली

जंगल में अकेले होते हुए भी
सुआपी से उठती गंध में
मां होती और
महक उठता उनका आस-पास
दुगुना हो जाता
उनकी त्‍वचा का उल्‍लास
कि जंगल इस तरह
उनका घर हुआ

घर लौटने पर इस तरह जंगल
संग-साथ चला आता पाहुना सा

और पिता के भीतर कोई छूट गया पुरखा
कि हर बार इस तरह लौटने पर
वे कुछ और अधिक पिता
कुछ और अधिक मनुष्‍य होते
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