''' प्रकाशक की कलम से '''
डा० मनोज श्रीवास्तव आत्म चेतना के ऊर्जस्व कवि हैं. बीसवीं सदी का अवसान होते-होते इनकी कविता विश्वव्यापी लोकमंगलकारी व्यवस्था कायम करने के लिए एक आन्दोलन के रूप में अचानक मुखरित होती हैं. ये कवितायेँ कुशासन और राजनीतिक स्वार्थवाद, साम्प्रदायिक विद्वेष और धार्मिक असहिष्णुता, बौद्धिक छिछोरापन और तामसी जड़ता, विनाशक वैज्ञानिक कवायद, आर्थिक अन्धदौड़ में नैतिकता की उपेक्षा, अपसांस्कृतिक घटकों आदि के खिलाफ एक सुपरिनामी जंग छेदने का दावा करती हैं. नि:संदेह, ये जीवन के बेहतरीकरण की मौजूदा आपाधापी में त्याग, समर्पण, लोकहित और नैष्ठिक आचरण के बजाय उच्छृंखल भोगवाद को दी जा रही प्रधानता के विरुद्ध एक सार्टक एवं सारगर्भित संदेश देने की कोशिश करती हैं.
कवि का लक्ष्य मनुष्य और प्रकृति के तादात्म्य को अविलागे बनाते हुए मनुष्य को प्रकृति-भंजक शक्तियों से लड़ने के लिए एक दमदार सैनिक बनाना है. उसके लिए प्रकृति वह परम्परा है, वह रिवाज़ है, वह बोध है जो जीवनानुकूल और जीवनदायक है. हर प्रकार के भय की मुक्तिदायक है. ऐसी ही प्रकृति कवि और उसकी कविता के भीतर स्पंदित है. मनुष्य से प्रकृति का संबंध चिरकालिक, चिरंजीव है. उनमें सामंजस्य, सहयोग एवं अन्योन्याश्रिता दोनों के अस्तित्त्व के लिए अनिवार्य है. किन्तु, मानव का परामानव बनने की निरर्थक प्रयास इस संबंध को तोड़ने पर आमादा है. कवि सृष्टि को इस घातक स्थिति से उबारने का भरपूर यत्न करता है.
डा० श्रीवास्तव की कविता एक सायास तलाश है--सार्थक शब्दों की. एक ऐसे वृत्तात्मक प्रतीक की अन्वेषणा है जिसकी परिधि में समूची सृष्टि, सम्पूर्ण जीव-जगत और विशेषतया मनुष्य की सृजनात्मकता समा सके. और वह प्रतीक ही, जो कुछ इस संसार में सत्यम, शिवम् और सुन्दरम है, उन सबका पर्याय बन सके.