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सूतक का समय / लीलाधर मंडलोई

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<poem>

महेश कटारे दिल्‍ली आए
इस दफा घर नहीं आए
मैं परेशान कि ऐसा हुआ नहीं
न आने की कोई वजह भी पता न चली
काम-काज में फंसा मैं
बमुश्किल उस तक पहुंचने में कामयाब

एक शाम हम सब के नसीब में इस तरह
वही पुराना राग
कुछ दोस्‍त अदद-तीन
वही पीना
वही चर्चा
वही एकतान दुःख

उसे छोड़ते हुए ठिकाने पर मैंने पूछा उसके न आने का कारण
कहा उसने झिझकते, ‘’मालूम है तुम्‍हें मां नहीं रही’’
यह सूतक का समय है
और घर तुम्‍हारे अभी मां है
कितना ही झूठ सही... हिम्‍मत नहीं हुई आने की

‘सूतक का समय....’
और ‘अभी मां है’
ये वाक्‍य मेरा पीछा कर रहे थे.. मैं चुपचाप अपने घर की तरफ लौट रहा था... लौटने में जल्‍दी का भाव था... मां...को देख लेने की व्‍यग्रता... और इस अजाने खयाल से मैं ऐसा डरा
मेरा रक्‍तचाप बढ़ा

मैं पसीने में लतपथ था...
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