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10:33, 8 अगस्त 2010 {{KKRachna
|रचनाकार=गुलज़ार
|संग्रह = पुखराज / गुलज़ार
}}
<poem>
देखो आहिस्ता चलो,और भी अहिस्ता ज़रा
देखना,सोच-समझकर ज़रा पावँ रखना
जोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख्वाब टूटे न कोई,जाग न जायें देखो
जाग जायेगा कोई ख्वाब तो मर जायेगा
</poem>